हिन्दी भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत भाषा में तलाशी जा सकती हैं। परंतु हिन्दी साहित्य की जड़ें मध्ययुगीन भारत की ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली और मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य में पा…
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।
देखो मैंने कंधे चौड़े कर लिये हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है।
घबराओ मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूँ।
सूरज ठीक जब पहाडी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूंगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा।
अब मैं सूरज को नही डूबने दूँगा।
मैंने सुना है उसके रथ में तुम हो
तुम्हें मैं उतार लाना चाहता हूं
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनी का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हें मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूं।
रथ के घोड़े आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नही होंगे
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिये है।
कौन रोकेगा तुम्हें
मैंने धरती बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मैं तुम्हें सजाऊँगा
मैंने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतो में मैं तुम्हे गाऊँगा
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है
हर आँखों में तुम्हें सपनों सा फहराऊँगा।
सूरज जायेगा भी तो कहाँ
उसे यहीं रहना होगा
यहीं हमारी सांसों में
हमारी रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगों में
तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को नही डूबने दूंगा।
Awesome dude ..Thanks for this Initiative 😃
ईश्वर की कार्यप्रणाली - भूपेंद्र कुमार दवे
एक हिरनी को नदी किनारे पानी पीते देख बहेलिये ने तीर चलाने की सोची। परन्तु हिरनी बोल पड़ी, "ठहरो, तुम मुझे मारकर खा लेना पर पहले मुझे अपने बच्चों को प्यार कर उन्हें अपने पति के पास पहुँचा आने दो।" कुछ सोचकर बहेलिये ने हिरनी की बात मान ली। हिरनी ख़ुश होकर अपने बच्चों के पास आई, उन्हें प्यार किया और फिर पति को सारा क़िस्सा सुनाया। हिरन ने कहा, "तुम बच्चों को लेकर घर जावो और मैं बहेलिये के पास जाता हूँ।" हिरनी ने कहा, "यह कैसे हो सकता है? वचन में मैं बँधी हूँ, तुम नहीं।" यह सुन बच्चे बोले, "हम अकेले कहाँ रहेंगे।" अतः चारों बहेलिये के पास पहुँचे। उन सब को देख बहेलिये ने सोचा कि उसके हाथ लाटरी लग गई है।
उधर हिरनी की बातें सियार ने सुन लीं थी। वह दौड़कर शेर के पास गया और सारा क़िस्सा बताकर बोला, "हज़ूर, आपका अन्न भंडार लूटा जा रहा है। चलिये, जल्दी कुछ करिये।" अतः जैसे ही बहेलिया हिरणों पर तीर चलाने को हुआ तो पीछे से झपटकर शेर ने उसे दबोच लिया। हिरनी अपने परिवार सहित जंगल में भाग खड़ी हुई।
यह कथा वचन निभाने के महत्व को रेखांकित तो करती ही है पर यह भी बताती है कि सुजनों की रक्षा के लिये ईश्वर कभी-कभी दुर्जनों का भी उपयोग करते हैं। इसलिये सक्षम होकर भी ईश्वर दुर्जनों का संपूर्ण नाश नहीं करते।
हो गई है पीर पर्वत - दुष्यंत कुमार
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
आम आदमी और बाढ़ का सुख - श्यामल सुमन
शीर्षक की सार्थकता रखते हुए पहले "आम आदमी": की बात कर लें। आम एक स्वादिष्ट, मँहगा और मौसमी फल है, जिसकी आमद बाढ़ की तरह साल में एक बार ही होती है। मज़े की बात है कि आम चाहे जितना भी कीमती क्यों न हो, अगर वह किसी भी शब्द के साथ जुड़ जाता है तो उसका भाव गिरा देता है। मसलन - आम आदमी, आम बात, आम घटना, दरबारे आम, आम चुनाव इत्यादि। अंततः हम सभी "आम आदमी" की भौतिक उपस्थिति और उनको मिलने वाले "पंचवर्षीय सम्मान" से पूर्णतः अवगत हैं।
मैं भी उन कुछ सौभाग्यशाली लोगों में से हूँ जिसका जन्म कोसी प्रभावित क्षेत्र में हुआ है। एक लघुकथा की चर्चा किए बिना बात नहीं बनेगी। बाढ़ के समय आकाश से खाद्य - सामग्री के पैकेट गिराए जाते हैं और प्रभावित आम आदमी और उनके बच्चे उसे लूटकर ख़ूब मज़े से खाते हैं (क्योंकि आम दिनों में तो गरीबी के कारण इतना भी मयस्सर नहीं होता)। बाढ़ का पानी कुछ ही दिनों में नीचे चला जाता है और आकाश से पैकेट का गिरना बंद। तब एक मासूम बच्चा अपनी माँ से बड़ी मासूमियत से सवाल पूछता है कि - "माँ बाढ़ फिर कब आएगी"? अपने आप में असीम दर्द समेटे यह लघुकथा समाप्त। लेकिन बच्चों का अपना मनोविज्ञान होता है और वह पुनः बाढ़ की अपेक्षा करता है एक सुख की कामना के साथ।
मौसम में "सावन-भादों" का अपना एक अलग महत्व है। दंतकथा के अनुसार अकबर भी बीरबल से सवाल करता है कि - एक साल में कितने महीने होते हैं? तो बीरबल का उत्तर देता है कि - दो, यानि सावन-भादों, क्योंकि पूरे साल इसी दो महीनों की बारिश की वजह से फसलें होतीं हैं। एक फ़िल्म आयी थी "सावन-भादों" और उससे उत्पन्न दो फ़िल्मी कलाकार नवीन निश्चल और रेखा आज भी कमा खा रहे हैं। कभी आपने सुल्तानगंज से देवघर की यात्रा की होगी तो यह अवश्य सुना होगा कि इस एक सौ बीस किलोमीटर की दूरी में बसनेवाले "आम आदमी" मात्र दो महीने अर्थात "सावन- भादों" की कमाई पर ही साल भर गुज़ारा करते है। चूँकि यह एक लोकोक्ति-सी बन गयी है, अतः इसकी सच्चाई पर संदेह करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। ठीक इसी तरह कोसी परियोजना (या फिर बाढ़ नियंत्रण विभाग, जल-संसाधन विभाग या फिर और कुछ) से जुड़े "सरकारी" लोगों के लिए "सावन-भादों" का अपना महत्व है और उससे उपजे सुख से उनका साल भर बिना "नियमित वेतन" को छुए, बड़े मज़े से गुज़ारा चलता है। यदि बाढ़ आ जाए तो फिर क्या कहना?
भारत भी अजब "राष्ट्र" है जिसके अन्दर "महाराष्ट्र" जैसा राज्य है। ठीक उसी तरह बिहार राज्य के अन्दर एक ही ज़िले का नाम "बाढ़" है और बाढ़ को छोड़कर कई ज़िलों में हर साल बाढ़ आती है। जहाँ पीने के पानी के लिए लोग हमेशा तरसते हैं, वहाँ के लोग आज "पानी-पानी" हो गए है और "रहिमन पानी राखिये" को यदि ध्यान में रखें तो प्रभावित लोगों का आज "पानी" ख़तम हो रहा है।
बाढ़ के साथ कई प्रकार के सुख का आगमन होता है। जैसे बाँध को टूटने से बचाने के लिए उपयोग लाये जानेवाले बोल्डर, सीमेंट का भौतिक उपयोग चाहे हो या न हो लेकिन खाता-बही इस चतुराई से तैयार किए जाते हैं कि किसी जाँच कमीशन की क्या मजाल जो कोई खोट निकल दे। रही बात राहत-पुनर्वास के फर्जी रिहर्सल की, वो भी बदस्तूर चलता रहता है। न्यूज़ चैनल वालों का भी "सबसे पहले पहुँचने" का एक अलग सुख है। बेतुके और चिरचिराने वाले सवालों का, मर्मान्तक दृश्यों को बार-बार दिखलाने का, नेताओं के बीच नकली "मीडियाई युद्ध" कराने का भी आनंद ये लोग उठाते हैं। "कटा के अंगुली शहीदों में नाम करते हैं" वाली बात साक्षात चरितार्थ होती है। "थोड़ी राहत - थोड़ा दान, महिमा का हो ढेर बखान" - यह दृश्य भी काफी देखने को मिलता है। एक से एक "आम जनता" के तथाकथित "शुभचिंतक" कहाँ से आ जाते हैं, राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए कि क्या कहूँ? बाढ़ के कारण चाहे लाखों एकड़ की फसलें क्यों न बर्बाद हो गईं हों, लेकिन राजनितिक "फसल" लहलहा उठती है। राजनीतिज्ञों के हवाई-सर्वेक्षण का अपना सुख है। ऊँचाई से देखते हैं कि "आम आदमी कितने पानी" में है? और आकाश से ही तय होता है कि अगले पाँच बरस तक आम आदमी की "भलाई" कौन करेगा।
निष्कर्ष यह कि "आम" और "बाढ़" दोनों राष्ट्रीय धरोहर है - एक राष्ट्रीय फल तो दूसरा राष्ट्रीय आपदा। जय-हिंद।
एक तिनका - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
एक दिन जब था मुँडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।
जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिये।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।
पुष्प की अभिलाषा - माखनलाल चतुर्वेदी
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शवपर,
हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक
स्वामी विवेकानंद की 111वीं पुण्यतिथि पर उनको कोटि कोटि श्रद्धांजलि
-------------------------------------------------------------------------------
स्वामी विवेकानन्द (12 जनवरी 1863 - 4 जुलाई 1902) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। स्वामीजी ने कहा था की जो व्यक्ति पवित्र ढँग से जीवन निर्वाह करता है उसी के लिये अच्छी एकाग्रता प्राप्त करना सम्भव है।
25 वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिये। तत्पश्चात् उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्दजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किन्तु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। "आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा" यह स्वामी विवेकानन्दजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।
अपने गुरु की मृत्यु के बाद स्वामी विवेकानन्दजी ने पूरे भारतवर्ष की पद यात्रा की। इस पद यात्रा के दौरान उन्होंने भारत के लाखों युवाओं में देश और संस्कृति प्रेम की ऐसी अलख जलाई कि युवाओं ने क्रांतिकारी चोले धारण कर लिए। मान्यता है कि स्वामी विवेकानन्द के संपर्क में आने के बाद ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिंद फ़ौज खड़ी की थी, तो सरदार बल्लभभाई पटेल का व्यक्तिगत जीवन भी स्वामी जी से प्रेरित था। स्वामी जी द्वारा लिखे गए लेख व पुस्तकें आज भी दुनिया भर में पढ़ी जातीं है क्योंकि उनकी शैली में मौजूद भाव आज भी जोश भर देने वाला है।
4 जुलाई सन् 1902 को उन्होंने देह-त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। जब भी वो कहीं जाते थे तो लोग उनसे बहुत खुश होते थे। जब भारत देश गुलाम था तथा विदेशों में उसकी छवि एक पिछड़े लोगों के देश के रूप में थी और भारतीय मानसिकता सोई हुई थी तो ऐसे समय में स्वामी विवेकानंद ने विश्व में भारतीय संस्कृति का झंडा फहराकर हिंदुस्तान के प्रत्येक व्यक्ति की सोई हुई चेतना को जगाया। अगर आज का युवा वर्ग स्वामीजी के विचारों को अपनाएं तो युवा पीढ़ी को नई शक्ति मिल सकती है। आज युवाओं को अपनी मूल सभ्यता से जुड़ते हुए भारतीय संस्कृति को मजबूत बनाने के लिए आगे आना होगा. ताकि हम अपने भविष्य को एक ऐसा सपना देकर जाएँ जिसकी नींव में हमारी संस्कृति और महापुरुषों के आदर्शों की मजबूती हमेशा मौजूद रहे. जय हिन्द...
Audio Clip Attached - Swamiji at Chicago...Introduction & Why we disagree speech...A must listen...
न चाहूं मान - राम प्रसाद 'बिस्मिल'
न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना
करुँ मैं कौम की सेवा पडे़ चाहे करोड़ों दुख
अगर फ़िर जन्म लूँ आकर तो भारत में ही हो आना
लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी
चलन हिन्दी चलूँ, हिन्दी पहरना, ओढना खाना
भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना
लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन
करुँ मैं प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना
नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना
आराम करो - गोपालप्रसाद व्यास
एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
लेखनपुर की प्रेम कथा - अख़तर अली
बहुत समय पहले की बात है, लेखनपुर नामक गाँव में एक युवक और युवती रहा करते थे । युवती का नाम कविता और युवक का नाम कहानी था । कविता और कहानी के प्रेम के चर्चे सिर्फ लेखनपुर मे ही नहीं बल्कि आस पास के गाँव में हुआ करते थे । लोग इनकी तुलना लैला-मजनू और शीरी-फरहाद से किया करते थे । बड़े बुजुर्ग तो यहाँ तक कहा करते थे कि कविता और कहानी से ही लेखनपुर आबाद है, कोई कहता कविता और कहानी के रहने से ही लेखनपुर की पहचान बनी है। कविता और कहानी की मौजूदगी से लेखनपुर भी आनंदित था ।
अचानक एक दिन लेखनपुर में एक अजनबी आदमी आया। उसकी बुरी नज़र कविता और कहानी की जोड़ी पर पड़ी और उसी दिन से कविता और कहानी के बुरे दिन शुरू हो गये। वह अजनबी आदमी धीरे-धीरे संदिग्ध होने लगा, उसने कविता और कहानी को सब्ज़-बाग दिखाने शुरू कर दिये, उसने इनके दिमाग में यह बात बैठा दी कि यहाँ लेखनपुर मे तुम्हारी कोई पहचान नहीं बन पा रही है तुम मेरे साथ चलो फिर देखो मैं तुम्हें कहाँ से कहाँ पहुँचा देता हूँ । कविता और कहानी उस धोखेबाज के चक्कर में आ गये और अपने आप को पूरी तरह से उसके हवाले कर दिया। उस दिन के बाद से आज तक लेखनपुर में कविता और कहानी को नहीं देखा गया। किसी को पता ही नहीं चला कि आखिर ये दोनों का क्या हुआ? बहुत समय बाद केवल इतना ही पता चला कि उस संदिग्ध आदमी का नाम 'प्रकाशक' था ।
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है - केदारनाथ अग्रवाल
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
अब तो पथ यही है - दुष्यंत कुमार
जिंदगी ने कर लिया स्वीकार, अब तो पथ यही है
अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार, अब तो पथ यही है।
क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार, अब तो पथ यही है।
यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार, अब तो पथ यही है।
प्रतीक्षा - सुभद्राकुमारी चौहान
बिछा प्रतीक्षा-पथ पर चिंतित
नयनों के मदु मुक्ता-जाल।
उनमें जाने कितनी ही
अभिलाषाओं के पल्लव पाल॥
बिता दिए मैंने कितने ही
व्याकुल दिन, अकुलाई रात।
नीरस नैन हुए कब करके
उमड़े आँसू की बरसात॥
मैं सुदूर पथ के कलरव में,
सुन लेने को प्रिय की बात।
फिरती विकल बावली-सी
सहती अपवादों के आघात॥
किंतु न देखा उन्हें अभी तक
इन ललचाई आँखों ने।
संकोचों में लुटा दिया
सब कुछ, सकुचाई आँखों ने॥
अब मोती के जाल बिछाकर,
गिनतीं हैं नभ के तारे।
इनकी प्यास बुझाने को सखि!
आएंगे क्या फिर प्यारे?
कर भला तो हो भला - संतोष भाऊवाला
जीवन रेलगाड़ी से दस लाख रुपये का तकादा लेकर दिल्ली से कोलकात्ता जा रहा था। बहुत ही बैचनी हो रही थी। रुपये ठीक से रखे या नहीं, बार बार उन्हें संभाल रहा था जीवन भर की जमा पूंजी भी जमा कर ले, तब भी न कमा पायेगा इतना….
रात को सोने से पहले तकिये के नीचे छुपा कर सोया, लेकिन आँखों में नींद ही नहीं। चिंता सताए जा रही थी, कहीं कुछ अनहोनी ना हो जाये। आस पास देखा सभी खर्राटे मार कर गहरी निद्रा में सो रहे थे, लेकिन उसकी आँखों से नींद कोसो दूर थी। सहसा... ट्रेन रूक रूक कर घर्र घर्र की आवाज के साथ धक्के खाने लगी, वह कुछ समझ पाता इतने में ही सर जाकर जोर से डब्बे की दीवार से जा टकराया, दिन में ही तारे नजर आने लगे, कुछ समझने की स्थिति में आया तो देखा कि उसका डब्बा लटका हुआ है कहीं, नीचे पानी दिख रहा था, दिमाग चक्कर खाने लगा, कि ये क्या हो गया। धीरे धीरे हिम्मत करके ऊपर की ओर से जो रास्ता नजर आया, उससे निकलने की कोशिश करने लगा। निकलने ही वाला था कि इतने में पैसा याद आया, बैग खोजने की सोच ही रहा था कि कई लोग उसे धक्का देने लगे, कहने लगे, “रास्ता छोडो, हमें भी बाहर निकलना है, डब्बा कभी भी पानी में गिर सकता है”। क्या करता ..बुझे मन से बाहर निकल गया। एक एक करके सभी बाहर निकल गये। उसने देखा, अब कोई भी बाहर नहीं निकल रहा तो वापस डब्बे के अंदर जाने लगा, सभी ने बहुत समझाया, लेकिन नहीं, उसने सोचा जल्दी से जाकर ले आऊंगा, नहीं तो इतना पैसा जिंदगी भर कटौती करूंगा तब भी भरपाई न हो सकेगी। हिम्मत जुटा कर नीचे उतरा धीरे से, अपना बैग खोजने लगा, जैसे ही बैग दिखा, उठाने को झुका तो देखा वहां एक बूढ़ा आदमी सीट के नीचे फंसा हुआ है, निकल नहीं पा रहा है। उसके शरीर पर कोई बड़े सी लोहे की पटरी सी गिरी पड़ी थी, जिसे वह उठा नहीं पा रहा था। पैरो से मजबूर किसी के सहारे को तलाश रहा था। एक बार मन में आया उसे बचाना चाहिए, लेकिन उसे क्या, वह तो पैसा लेने आया है, वर्ना पूरी जिंदगी भी नहीं चूका पायेगा, पत्नी बच्चों के भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। ये तो बूढ़ा है कुछ दिनों की जिंदगी बची है। लेकिन वो आदमी कराह रहा था, दयनीय दृष्टि से उसकी ओर ताक रहा था, जीवन सोच में पड़ गया, क्या करे, रुपयों को संभाले या उसकी जान बचाए, कभी रूपया हावी हो रहे थे, तो कभी इंसानियत। समय बहुत कम था, डब्बा पानी की गोद में उसे लेकर कभी भी समा सकता था, इसी उहापोह में मानवता जीत गई और मन कड़क करके बैग पर एक विवशता भरी निगाह डाल कर उसकी सहायता करने लगा। उसे करीब करीब गोद में उठा कर चलने लगा, फिर से बैग देखा, लेकिन हाथ में उठा नहीं सकता था। जीवन उस आदमी को लेकर जैसे ही बाहर निकला, डब्बा पानी में गिर गया, जीवन का कलेजा मुहं को आ गया। एक तरफ जहाँ उस आदमी को बचाने का आत्मसंतोष था, दूसरी ओर पूरी जिंदगी की चिंता ...लेकिन अब क्या हो सकता है यह सोच कर वह बुझे मन से घर की ओर जाने लगा, तो देखा वह आदमी उसे कुछ इशारा कर रहा है। उसने देखा, उसके हाथ में बैग है खून से लथपथ, ध्यान से देखा, अरे ये तो मेरी बैग है। तब उसने बताया, जब वो उसे गोद में उठाये निकल रहा था, तब एक बार डब्बा थोडा हिला, उस समय लडखडाने से गोद में से वह फिसल सा गया था, उसी समय वो बैग उसके हाथ से टकराई और उसने उसे कस कर पकड़ लिया था, उसकी अनुभवी आँखों ने भांप लिया था कि जरूर इसमें उसके काम की कोई चीज है, लेकिन फिर भी उसने मानव धर्म को चुना, उसकी सहायता की, यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है। उस समय सही निर्णय ले पाना कितना कठिन होता है, पर उसने कर दिखाया, अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर।
कहते हैं ना ... कर भला तो हो भला
उम्र भर भरते रहे हम दौलत से तिजोरियां ......मगर मौत का फ़रिश्ता रिश्वत ही नहीं लेता..........
-------unknown
तन चंचला
मन निर्मला
व्यवहार कुशला
भाषा कोमला
सदैव समर्पिता |
नदिया सा चलना
सागर से मिलना
खुद को भुलाकर भी
अपना अस्तित्व सभलना
रौशन अस्मिता |
सृष्टि की जननी
प्रेम रूप धारिणी
शक्ति सहारिणी
सबल कार्यकारिणी
अन्नपूर्णा अर्पिता. |
मूरत ममता
प्रचंड क्षमता
प्रमाणित विधायक
सौजन्य विनायक
अखंड सहनशीलता |
आज का युग तेरा है परिणीता
नारी तुझ पर संसार गर्विता ....
unknown
इस महँगाई में - योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
इच्छाएँ सारी
आय अठन्नी
खर्च रुपैया
इस महँगाई में
बड़की की शादी होनी है
इसी जुलाई में
कैसे होगा ? सोच रहा है
गुमसुम बनवारी
नित्य आत्महत्या करती हैं
इच्छाएँ सारी
बिन फ़ोटो के फ़्रेम सरीखा
यहाँ दिखावा है
अपनेपन का विज्ञापन-सा
सिर्फ़ छलावा है
अपने मतलब की ख़ातिर
नित नई कलाकारी
नित्य आत्महत्या करती हैं
इच्छाएँ सारी
हर पल अपनों से ही
सौ-सौ धोखे खाने हैं
अंत समय तक फिर भी सारे
फ़र्ज़ निभाने हैं
एक अकेला मुखिया घर की
सौ ज़िम्मेदारी
नित्य आत्महत्या करती हैं
इच्छाएँ सारी
विडम्बना - गौरव गोयल
देवभूमि की अधिरक्षक माँ धारी देवी की प्राचीन प्रतिमा को केदारनाथ में आये विनाश से एक दिन पहले ही श्रीनगर में बन रही जल-विद्युत परियोजना के कारण स्थानांतरित किया गया। यह वही धारी देवी है जिनके दर्शन भक्त चारधाम यात्रा पर जाने से पहले करते है और सकुशल यात्रा के लिए प्रार्थना करते है। शक्ति के साथ छेड़-छाड़ का परिणाम आज हम सब शिव के क्रोध के रूप में देख सकते है। बाबा भोले के धाम में जिस बम की ध्वनि का नाद भक्तो ने विनाशरुपी प्रलय से पहले सुना उसी बम के नाद को हमारे पुराणों में सृष्टी की उत्पत्ति का कारण बताया गया है। बाबा भोले की महिमा को इसी से समझा जा सकता है की केदार घाटी में आई उस विनाशकारी प्रलय में कलयुग का तो कुछ नहीं बचा लेकिन द्वापरयुग में निर्मित बाबा के मंदिर को लेशमात्र भी हानि नहीं हुई यहा तक की बाबा के परम भक्त नंदी को भी वह प्रलय टस से मस ना कर सकी और उन्हें अभी भी प्रभु को निहारते हुए हम देख सकते है। यह भी विचित्र बात है की कुछ लोग कह रहे है मंदिर को क्षति होने से उस विशाल शिला ने बचा लिया जो ऊपर से बह कर आई थी। यहाँ मै अपने एक मित्र की इसी सन्दर्भ में कही हुई बात आप लोगो को बता रहा हूँ। " इन सज्जन का यह मानना है की वह शिला जो प्रभु के मंदिर और प्रलय के बीच आ गयी वह शिला उस दिन बहुत रोयी होगी जिस दिन उसका चयन उन शिलाओ में नहीं हुआ जो प्रभु के धाम के निर्माण के लिए चुनी गयी थी, लेकिन विश्वनाथ शिव ने इस शिला के को भी अपने प्रति प्रेम का पुरस्कार दिया और कलयुग में यह शिला प्रभु के द्वारा निर्धारित किये हुए स्थान पर प्रभु की महिमा का गुणगान कर रही है।" कहा भी गया है की कंकर-कंकर में शंकर निवास करते है।
जब तक कलयुगी मनुष्य अपने स्वार्थो की पूर्ती के लिये पृथ्वी के मस्तक हिमालय, उनकी नदी-रूपी पुत्रियों और करोडो लोगो की आस्था से जुड़े देवभूमि के प्राकर्तिक संतुलन के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं करेगा तब तक यह विनाशकारी प्रलय समय-समय पर संतुलन पुनर्स्थापित करने के लिए आती रहेगी।
हमने हमारे देवी-देवता रूपी पहाड़ो और नदियों के साथ क्या किया है इसकी विभीषिका का अंदाजा यहाँ संलग्न इस सूची से हो जाएगा जिसमे देवभूमि उत्तराखंड में निर्मित एवं निर्माणाधीन जल-परियोजनाओ का ब्यौरा है।